Wednesday, June 9, 2010

तेरी मां भी कभी जवान थी ओए कुंजड़े

हर औरत जवान होती है
तेरी मां भी जवान थी
जो सुख तूने किसी औरत के साथ लूटे
वही तेरी मां के साथ लूटे जाते थे

तेरी मां भी जवान हुआ करती थी
एकदम जोश का तूफान हुआ करती थी

जो तू सोचता है
वही सब कुछ होता था तेरी मां के साथ

तेरी मां ने तुझे पैदा किया
लेकिन तुझे संस्कार नहीं दिये
सिर्फ नाचना सिखया
ठुमके लगाना सिखाया

क्योंकि वो छोड़ गई थी तुझे जन्म देकर

कचरे के ढेर में
कचरे के ढेर में तू पला
कचरे खाया, कचरा सोचा
कचरा तेरे दिमाग में भर गया
उसके पास भी था एक जोड़ा
जिससे तू कभी दूध नहीं पी सका


तेरी मां की भी क्या गलती थी
क्योंकि तेरे पास एक असली बाप का नाम नहीं था

हरामी होने का दंश भोगता रहा
अब वही दंश समाज को लौटा रहा है
ठुमके लगा रहा है


हरामी होने की यही नियति होती है
जो कि आज तेरी है

Monday, June 7, 2010

पूंजीवादी समाज के प्रति

इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल।
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ' दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र।
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ।




गजानन माधव मुक्तिबोध की कविता